भगवान ने क्यों दिया था इस जगह को बद्री का नाम और बद्रीनाथ में नर और नारायण ने क्यों कि थी तपस्या
ए.के. सती की विशेष रिपोर्ट
चमोली/देहरादून, 1 मई। उत्तराखंड की चार धाम यात्रा में बद्रीनाथ धाम की यात्रा का भारतीय संस्कृति में खास महत्व बताया गया है। बद्रीनाथ धाम के कपाट श्रद्धालुओं के लिए इस वर्ष 27 अप्रैल को कपाट खुल गए थे और अगले 6 महीनों तक श्रद्धालु बद्री विशाल के दर्शन कर सकेंगे।
चमोली जनपद में स्थित बद्रीनाथ धाम के कपाट खुलने के समय हेलीकॉप्टर से पुष्प वर्षा करने के साथ साथ सेना के बैंड की धुन बजाई जाती है। भगवान बद्री विशाल के कपाट 6 महिने के लिए बंद रहते हैं और 6 महीने के लिए श्रद्धालुओं के दर्शनों के लिए खोले जाते हैं।
बद्रीनाथ धाम के कपाट खुलने की तैयारी तीन दिन पहले ही शुरू कर दी जाती है। गरुड़ जी के बद्रीनाथ प्रस्थान के साथ ही जोशीमठ के नृसिंह मंदिर में गरुड़ छाड़ मेला का बड़ी धूमधाम के साथ आयोजन किया जाता है और इसके साथ ही तेल कलश यात्रा शुरू होकर अगले दिन शंकराचार्य जी की गद्दी के साथ तेल कलश यात्रा पांडुकेश्वर में रात्रि ठहराव के कपाट खुलने से एक दिन पहले मुख्य पुजारी रावल जी यात्रा के साथ उद्धव ,कुबेर सहित भगवान बद्रीनाथ धाम पहुंचते हैं और अगली सुबह भगवान बद्री विशाल के कपाट दर्शनों के लिए खोल दिए जाते हैं।
नर नारायण ने क्यों कि थी तपस्या
वैसे तो हर एक धाम और हर एक मंदिर का अपना महत्व है और लोग आस्था के साथ जुड़े हुए हैं। लेकिन शास्त्रों के ज्ञाताओं के अनुसार देश के चार धामों में एक बद्रीनाथ धाम का एक बड़ा महत्व बताया गया है। इस धाम में एक दिन की तपस्या करने का फल एक हजार वर्ष तक तपस्या करने के बराबर मिलता है,जिससे दुद्र्वम्भ राक्षस को मारने के लिए नर नारायण ने यहां 100 दिनों तक तपस्या की थी। जब राक्षस के मरने का समय आया तो वह भाग कर सूर्य देव के पीछे छिप गया और द्वापर युग में उसने सूर्य पुत्र कर्ण के रूप में जन्म लिया था और कर्ण के रूप में पैदा हुए उस कवचधारी राक्षस को मारने के लिए भगवान को श्री कृष्ण और अर्जुन के रूप में अवतार लिया था।
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इंद्र ने भेजी थी अप्सरा
कहा जाता है कि त्रेता युग में जब यहां पर नर और नारायण ने तपस्या कर रहे थे तो उस समय इंद्र देव ने उनकी तपस्या को भंग करने एवं परीक्षा लेने के लिए इंद्रलोक से सुन्दर अप्सरा को भेजा था। अप्सरा ने अपने संगीत व नृत्य से नर और नारायण की तपस्या को भंग करने का प्रयास किया था। लेकिन नारायण ने अपनी जंगा से उस अप्सरा से भी ज्यादा सुन्दर एक और अप्सरा को धरा पर लाकर इंद्र के पास भेजा था,जिससे इंद्र का घमंड आदि चूर चूर हो गया था।
गुरु शंकराचार्य ने की थी स्थापना
नर और नारायण पर्वत श्रृंखलाओं के बीच एवं अलकनंदा नदी के किनारे नीलकंठ पर्वत पर स्थित इस पवित्र धाम का वैसे तो हर एक युग में वर्णन आता है। त्रेता युग में इसे योग सिद्ध,द्वापर युग में मणिभद्र और कलयुग में इसे बद्रीनाथ धाम से जाना जाता है। यहां बद्री विशाल,बद्री नारायण और बद्रीनाथ धाम के नाम से मंदिर की स्थापना गुरु शंकराचार्य ने नौवीं शताब्दी में की थी।
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एक मीटर लंबी है मूर्ति
इस पवित्र धाम में भगवान विष्णु की ध्यान मुद्रा में एक मीटर लंबी मूर्ति है,जिसको शंकराचार्य ने नारद कुण्ड से निकाल कर स्थापित किया था। माना जाता है कि भगवान विष्णु की स्वयं प्रकट हुई आठ मूर्तियों में से एक है,जिसके दर्शन करने मात्र से व्यक्ति को मृत्यु के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। इसी तरह यहां कुबेर जी और लक्ष्मी नारायण की मूर्तियां भी हैं और यहां भगवान विष्णु की पांच स्वरूपों की पूजा होती है।
भगवान को माता लक्ष्मी ने दी थी छाया
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार माता लक्ष्मी जी ने भगवान विष्णु जी को तपस्या के दौरान बदरी यानी कि बेर का पेड़ बनकर छाया देने का कार्य किया था। लक्ष्मी जी के इस समर्पण भाव के कार्य से खुश होकर भगवान विष्णु जी ने इस जगह को बद्रीनाथ नाम से प्रसिद्ध होने का वरदान भी दिया था।
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