कुल्लू दशहरा उत्सव : रथ यात्रा की अखंड परंपरा 1661 में राजा जगत सिंह के समय हुई थी शुरू

1920 से 1966 तक जिला बोर्ड कांगड़ा द्वारा किया जाता था दशहरे का आयोजन

By. प्रेम सागर चौधरी      

कुल्लू,27 अक्टूबर। अतंरराष्ट्रीय स्तर पर मनाए जा रहे कुल्लू दशहरा उत्सव की रथ यात्रा की अखंड परंपरा 1661 में राजा जगत सिंह के समय में हुई थी। मगर 1661 से बेरोकटोक चल रही रघुनाथ की रथ यात्रा की यह अखंड परंपरा 1971 में गोली कांड से खंडित हुई थी। उसके बाद यह रथ यात्रा दो साल नहीं निकली।

1972 व 73 में रथायात्रा नहीं निकली

उल्लेखनीय है कि 1971 में उस समय के प्रशासन ने उस रास्ते को किन्हीं कारणों से बंद कर दिया था, जहां से रघुनाथ की पालकी निकलती थी। मगर पाबंदी के बावजूद भी जब पालकी उसी रास्ते से निकली तो पुलिस ने श्रद्वालुओं पर गोली चलाई,जिसमें एक श्रद्धालु की मौत हो गई। उसके बाद 1972 व 73 में रथायात्रा नहीं निकली। 

विजय दशमी से मनाया जाता है

जनकारो के अनुसार 1920 तक दशहरे का आयोजन राजा जगत सिंह करते रहे। मगर 1920 से 1966 तक जिला बोर्ड कांगड़ा द्वारा दशहरे का आयोजन व प्रबंध किया जाता रहा। उसके बाद स्थानीय नगरपालिका परिषद व जिला प्रशासन द्वारा सयुंक्त रूप से दशहरा मनाया जाता है। कुल्लू के राजा जगत सिंह के समय से ही कुल्लू का दशहरा विजय दशमी से मनाया जाता है।

चार सौ के लगभग देवी-देवता आते थे

स्थानीय बोली में विजय दशमी को विदा दशमी कहा जाता है। जानकारों के अनुसार राजा के समय दशहरे में चार सौ के लगभग देवी-देवता आते थे। पहले कुल्लू में राजा शांगरी, आनी, व कुल्लू के राजा का दरबार लगता था। राजा शांगरी का दरबार कलाकेंद्र के स्थान पर तथा राजा रूपी का दरबार वर्तमान जगह पर दशहरा मैदान में ही लगता था। उस समय राजा के दरबार को राजे री चानण कहा जाता था। दोनों राजाओं के दरबार में रात भर कुल्लवी नाटी तो चलती ही थी, साथ में राम लीला, देवी का तमाशा तथा धर्मिक प्रवचन आदि अनेक कार्यक्रम होते थे। एक तरह से उस समय कुल्लू दशहरा पारंपरिक ढंग से मनाया जाता था। चांदनी रात में ढालपुर मैदान में जब गांव से आए लोग मस्त होकर नाचते थे तो ऐसा लगता था मानो उन्हें सारे जहां की खुशियां हासिल हो गई हो।

दशहरे में 150-300 देवी-देवता आते है  

अब बदलते समय का आलम दशहरा मनाने का ढंग तो बदला मगर रघुनाथ व उनकी रथयात्रा से जुड़ी परंपराएं आज भी वैसी ही है। रघुनाथ की पूजा व श्रृंगार तथा रथयात्रा उसी ढंग से होती है जैसे पूर्व काल में होती थी। मगर अब देवी-देवताओं का आना कम है। हालांकि जब राजा शांगरी का दरबार लगता था तब तक बाहरी सिराज के देवता भी दशहरे में आते थे। मगर उसके बाद उनका आना कम हो गया। इसके बावजूद भी दशहरे में हर वर्ष लगभग 150-300 देवी-देवता आते है।